Saturday, January 19, 2008

सतपुड़ा के घने जंगल

This Poem -'Satpura ke Ghane Jungle', written by Bhawani Prasad Mishr, was one of my most favourite one during my school days. I derive lots of inspiration from Bhwani Ji's style of writing.

सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए-से,
ऊँघते अनमने जंगल।
झाड़ ऊँचे और नीचे

चुप खड़े हैं आँख मींचे,
घास चुप है, काश चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है;
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते, अनमने जंगल!

सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य को पथ ढँक रहे-से,
पंक दल में पले पत्ते,
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनौने-घने जंगल,
नीद में डूबे हुए-से
ऊँघते, अनमने जंगल!

अटपटी उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैरों को पकड़ें अचानक,
प्राण को कसलें कपाएँ,
साँप-सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ
लताओं के बने जंगल,
नींद में डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

मकिड़यों के जाल मुँह पर,
और सिर के बाल मुँह पर,
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात झंझा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद में डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

अजगरों से भरे जंगल
अगम, गति से परे जंगल,
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े-छोटे बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कंप से कनकने जंगल,
नींद में डूबे हुए-से,
ऊँघते अनमने जंगल।
इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर,
पाल कर निश्चिंत बैठे,
विजन वन के बीच बैठे,
झोंपड़ी पर फूस डाले
गोंड तगड़े और काले
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके ढोल इनके।

सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल
जागते अँगडाइयों में
खोह खडडों खाइयों में
घास पागल, काश पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल,
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर!

क्षितिज तक फैला हुआ-सा
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध काली लहर वाला,
मथित, उत्थित जहर वाला
मेरू वाला, शेष वाला,
शंभु और सुरेश वाला,
एक सागर जानते हो?
उसे कैसे मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद में डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतरकर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी निझर्र और नाले ,
इन वनों ने गोद पाले,
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फूल फिलयाँ,
खिल रहीं अज्ञात किलयाँ,
हिरत दूवार्, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय,
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल|
- भवानी प्रसाद मिश्र

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