A Hindi poem dedicated to all migrant labourers and daily wage workers who have been forced to return to abject poverty due to demonetization and ongoing currency chaos......
बेबसी
हम मज़दूरों की, उजड़ते उम्मीदों का दर्द किसे है,
परेशानी के सबब में, मरहूम मंसूबों का मर्म किसे है I
आज किसको है, मेरी इस बदहाली का फ़िक्र,
किससे करूँ, मैं रोजाना की दो रोटी का ज़िक्र II
परेशानी के सबब में, मरहूम मंसूबों का मर्म किसे है I
आज किसको है, मेरी इस बदहाली का फ़िक्र,
किससे करूँ, मैं रोजाना की दो रोटी का ज़िक्र II
तक़लीफों का, अपनी तंगी का, ये हिसाब किसे दूं,
मनहूसियत में, ऐसी मजबूरी का जवाब किसे दूं I
कोई मेरे भी, तरसते चूल्हों का जायजा तो ले,
मेरे 'मन की बात', हाकिम कोई, आज सुन ले II
मनहूसियत में, ऐसी मजबूरी का जवाब किसे दूं I
कोई मेरे भी, तरसते चूल्हों का जायजा तो ले,
मेरे 'मन की बात', हाकिम कोई, आज सुन ले II
क्या मेरी मुश्किलों में, अपनी कोई आवाज़ नहीं,
क्या मेरी ख़ामोशी में, कोई दुख का एहसास नहीं I
नुकसानों का कोई हिसाब, क्या कभी मुनासिब है,
खाली बर्त्तन में, कोई सब्र, क्या कभी वाजिब है?
क्या मेरी ख़ामोशी में, कोई दुख का एहसास नहीं I
नुकसानों का कोई हिसाब, क्या कभी मुनासिब है,
खाली बर्त्तन में, कोई सब्र, क्या कभी वाजिब है?
हुकूमती मकसदों का, मुझे कोई गिला नहीं,
पर कुछ यूं, अंजाम तक पहुचाने का सिला नहीं I
मंज़िलें कैसी भी हो, पर सफ़र के भी मायने हैं,
सियासत के खेल में, केवल एक ही आइने हैं II
पर कुछ यूं, अंजाम तक पहुचाने का सिला नहीं I
मंज़िलें कैसी भी हो, पर सफ़र के भी मायने हैं,
सियासत के खेल में, केवल एक ही आइने हैं II
दिक्कतों के दौर में, बड़ी मुद्दत से रोजी मिली थी,
पाबन्दी के एलान में, लूटी जो एक अर्जी मिली थी I
आठ दिन से मजदूरी नहीं, तबाही से टूटे हैं हम,
जेबें खाली, किस्मत काली, गरीबी से रूठे हैं हम II
पाबन्दी के एलान में, लूटी जो एक अर्जी मिली थी I
आठ दिन से मजदूरी नहीं, तबाही से टूटे हैं हम,
जेबें खाली, किस्मत काली, गरीबी से रूठे हैं हम II
सिलसिला कतारों का, कल भी, आज कई सारी है,
फर्क, कल पेट में दाना था, आज तबाही की बारी हैI
बेइंसाफी की आदत में, आज बेबसी की वफाई है,
कुछ बोलो, मुंह खोलो, सरहद-सेना की गुहाई है II
फर्क, कल पेट में दाना था, आज तबाही की बारी हैI
बेइंसाफी की आदत में, आज बेबसी की वफाई है,
कुछ बोलो, मुंह खोलो, सरहद-सेना की गुहाई है II
दीवाली से लौटा था, कैसे फिर जाएँ गांव अपने,
मगर पड़ेगा जाना, छोड़ रोटी, रोजी, और सपने I
हताशी में, कसक, मिटटी का गुल्लक तोड़ने का है,
बर्बाद दिल में, ग़म तो आज, शहर छोड़ने का है II
---कौशल किशोर विद्यार्थी
मगर पड़ेगा जाना, छोड़ रोटी, रोजी, और सपने I
हताशी में, कसक, मिटटी का गुल्लक तोड़ने का है,
बर्बाद दिल में, ग़म तो आज, शहर छोड़ने का है II
---कौशल किशोर विद्यार्थी
6 comments:
शानदार और गंभीर कविता हैं।
Relevant
Great sir !!
विद्वान,संजिदा,और हिमालय शिखर से भी ऊंची सख्सियत कौशल सर को नतमस्तक चरण स्पर्श करता हूँ।
उपेन्द्र गुप्ता पिन्डरावाला
अम्बिकापुर छत्तीसगढ़
very impressive
Awesome brother... Keep it up ..
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